रायपुर। श्री रावतपुरा सरकार विश्वविद्यालय के समाज कार्य विभाग एवं अंग्रेजी विभाग के संयुक्त तत्वावधान में डॉ. भीमराव आंबेडकर जयंती का भव्य आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रोफेसर मनीष पाण्डेय ने विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए अपने विचार साझा किए। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि भारत रत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर जब भारत की राजनीति में सक्रिय रूप से शामिल हुए, उस समय राष्ट्र आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से अत्यंत दयनीय स्थिति में था। देश की आधी से अधिक जनसंख्या को एक समय का भोजन भी नसीब नहीं होता था। ऐसे कठिन दौर में डॉ. आंबेडकर ने सामाजिक समानता, आर्थिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए संघर्ष किया। उन्होंने समाज के वंचित तबकों को संविधान के माध्यम से मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य किया।


सहायक प्रोफेसर डॉ. नरेश गौतम ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में डॉ. भीमराव आंबेडकर को लेकर लगातार तरह-तरह की अफवाहें फैलाई जा रही हैं। उन्हें सिर्फ ‘दलितों के नेता’ के रूप में सीमित कर प्रस्तुत किया जाता है, जबकि उनका व्यक्तित्व और योगदान इससे कहीं अधिक व्यापक और वैश्विक है। उन्होंने कहा कि “डॉ. आंबेडकर को दुनिया के सबसे बड़े शैक्षणिक संस्थानों ने ‘सिंबल ऑफ नॉलेज’ (ज्ञान का प्रतीक) के रूप में सम्मानित किया है।” उनके शोध और आर्थिक सोच के आधार पर भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की नींव रखी गई। उन्होंने केवल वंचित वर्गों के लिए ही नहीं, बल्कि महिलाओं के अधिकारों के लिए भी निर्णायक भूमिका निभाई।


डॉ. गौतम ने बताया कि डॉ. आंबेडकर ने महिलाओं को संपत्ति में समान अधिकार दिलाने, मातृत्व अवकाश (maternity leave) को कानूनी रूप से मान्यता देने और उन्हें निर्वाचन में मताधिकार दिलाने जैसे कई ऐतिहासिक प्रयास किए। उन्होंने हिंदू कोड बिल का प्रस्ताव रखा, जो महिलाओं को विवाह, उत्तराधिकार और संपत्ति के मामलों में बराबरी दिलाने वाला पहला कदम था। लेकिन यह भी सोचने की बात है कि उस समय सत्ता में बैठे कौन लोग थे जिन्होंने हिंदू कोड बिल का तीव्र विरोध किया। यह वही पितृसत्तात्मक सोच थी, जो आज भी समाज में किसी न किसी रूप में जीवित है। डॉ. गौतम ने एक मार्मिक उदाहरण देते हुए कहा, “रक्षा बंधन के दिन जब बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बाँधती है, तब वह उसके जीवन की रक्षा का वचन लेती है। लेकिन जब वही बहन अपने अधिकारों की बात करने लगे, तो वही समाज उसे विरोधी या ‘दुश्मन’ समझने लगता है।” यह सामाजिक मानसिकता तब तक नहीं बदलेगी जब तक हम आंबेडकर के विचारों को सही संदर्भ में न पढ़ें, समझें और समाज में लागू न करें। डॉ. गौतम ने विद्यार्थियों से अपील की कि वे आंबेडकर को केवल प्रतीकों में न बाँधें, बल्कि उनके विचारों और संघर्षों को जीवन में उतारने का प्रयास करें।


सहायक प्रोफेसर डॉ. अमित तिवारी अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि “बेहतर सोच के साथ बेहतर पहनावा मनुष्य के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि यह उसे अनुशासित और आत्मसम्मान से भरपूर बनाता है।” उन्होंने यह भी कहा कि डॉ. आंबेडकर उस समुदाय से आते थे जहाँ से शिक्षा प्राप्त करना और ऊँचे सपने देखना भी कठिन था, लेकिन उन्होंने अपने दृढ़ संघर्ष, आत्मबल और विद्वत्ता के बल पर न केवल उच्च शिक्षा प्राप्त की बल्कि भारतीय संविधान के निर्माता भी बने। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि कठिन परिस्थितियों में भी प्रयास और ज्ञान के माध्यम से समाज में बदलाव लाया जा सकता है।
डॉ. तिवारी ने विद्यार्थियों से संवादात्मक शैली में कुछ विचारोत्तेजक प्रश्न पूछे: क्या डॉ. आंबेडकर हिंदू विरोधी थे?, क्या वे ब्राह्मण विरोधी थे?, क्या वे महात्मा गांधी से वैचारिक रूप से भिन्न थे?, क्या उनकी भूमिका देश को तोड़ने वाली थी? इन सभी प्रश्नों पर उन्होंने कहा कि इनके उत्तर किसी के कहने या अफवाहों से नहीं, बल्कि स्वयं डॉ. आंबेडकर की लेखनी में निहित हैं। उन्होंने विद्यार्थियों को सुझाव दिया कि वे व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी (सोशल मीडिया पर फैली अफवाहों और अधूरी जानकारी) से बाहर निकलें और डॉ. आंबेडकर को उनकी असली रचनाओं, भाषणों और विचारों के माध्यम से पढ़ें, जानें और समझें। उन्होंने यह भी कहा कि डॉ. आंबेडकर के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, और यदि हम उनके सिद्धांतों को समझें तो समाज में सकारात्मक परिवर्तन संभव है।


इतिहास विभाग के सहायक प्रोफेसर श्री शीशिर छत्तर ने अपने वक्तव्य में डॉ. भीमराव आंबेडकर के बहुआयामी व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि “डॉ. आंबेडकर केवल एक राजनीतिज्ञ नहीं थे, बल्कि वे एक इतिहासकार, मानवविज्ञानी (Anthropologist), अर्थशास्त्री, विधिवेत्ता (Law Expert) और बहुभाषाविद भी थे।” उस समय भारत में शायद ही कोई दूसरा व्यक्ति होगा जिसने इतनी विविध शैक्षणिक योग्यताएँ और गहराई से ज्ञान प्राप्त किया हो। डॉ. आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसी विश्वविख्यात संस्थाओं से शिक्षा प्राप्त की और आधुनिक भारत की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे भारत के संविधान निर्माण की अध्यक्षता करने वाले ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन रहे और स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में कार्यभार संभाला। श्री छत्तर ने यह भी कहा कि डॉ. आंबेडकर ने अपने कार्यक्षेत्र को केवल किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने समाज के सभी वर्गों—वंचितों, महिलाओं, श्रमिकों, किसानों और आम नागरिकों—के अधिकारों के लिए समान रूप से कार्य किया। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि शिक्षा, विचार और संघर्ष के बल पर कैसे कोई व्यक्ति इतिहास को आकार दे सकता है। श्री छत्तर ने विद्यार्थियों से आह्वान किया कि वे डॉ. आंबेडकर के विचारों को गहराई से पढ़ें और उनके जैसे समर्पण और अध्ययनशीलता को अपनाने का प्रयास करें।


अगली कड़ी में अंग्रेज़ी विभाग की अध्यक्ष(HOD) डॉ. राशी ने कॉलेज के छात्रों को संबोधित करते हुए अंबेडकर जी के जीवन से जुड़ी पाँच महत्वपूर्ण शिक्षाओं पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि डॉ. अंबेडकर का जीवन एक प्रेरणा है, विशेष रूप से उन युवाओं के लिए जो शिक्षा, संघर्ष और आत्म-सम्मान के रास्ते पर चलना चाहते हैं। डॉ. राशी ने सबसे पहले शिक्षा की शक्ति पर ज़ोर देते हुए कहा कि “Education is the real power” – क्योंकि अंबेडकर जी ने शिक्षा को सामाजिक बदलाव का सबसे बड़ा माध्यम माना। उन्होंने यह भी कहा कि छात्र केवल डिग्री के लिए नहीं, बल्कि जागरूक और विचारशील नागरिक बनने के लिए पढ़ाई करें। दूसरा महत्वपूर्ण संदेश था – “Take a stand” यानी अपने अधिकारों के लिए खड़े रहना। अंबेडकर जी ने कभी अन्याय को स्वीकार नहीं किया, और उन्होंने सामाजिक समानता के लिए आजीवन संघर्ष किया। तीसरी सीख थी – “Unity in Diversity”। डॉ. राशी ने बताया कि अंबेडकर जी ने भारत की विविधताओं को कभी बाधा नहीं माना, बल्कि एकता की शक्ति में विश्वास किया। चौथी सीख थी – “Self-respect is non-negotiable।” उन्होंने बताया कि डॉ. अंबेडकर ने कभी भी आत्म-सम्मान से समझौता नहीं किया और युवाओं को भी यही संदेश दिया कि वे हमेशा अपने स्वाभिमान को प्राथमिकता दें। अंत में उन्होंने “Hard work” को सफलता की कुंजी बताया, यह समझाते हुए कि अंबेडकर जी ने अपने कठिन जीवन में जो ऊँचाइयाँ हासिल कीं, वह उनकी अथक मेहनत, लगनशीलता, धैर्य का परिणाम थीं।

प्रो. पाण्डेय ने कहा कि डॉ. आंबेडकर का यह कथन आज भी प्रासंगिक है कि “किसी भी देश का संविधान चाहे जितना भी मजबूत क्यों न हो, यदि उसे लागू करने वालों की नीयत ठीक नहीं होगी तो उसके परिणाम कभी सकारात्मक नहीं होंगे।” उन्होंने आगे कहा कि संविधान में प्रत्येक नागरिक को समान मौलिक अधिकार प्राप्त हैं, चाहे वह देश का प्रधानमंत्री हो या एक आम नागरिक। विद्यार्थियों को चाहिए कि वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनें, संविधान को आत्मसात करें और महापुरुषों के विचारों को अपने जीवन में उतारें। प्रो. पाण्डेय ने अपने संबोधन में धार्मिक सहिष्णुता पर भी बल दिया। उन्होंने कहा कि “यदि कोई संप्रदाय अपनी धार्मिक मान्यताओं को बढ़ावा देना चाहता है, तो उसे अन्य धर्मों और विश्वासों का भी उतना ही सम्मान करना चाहिए।”


कार्यक्रम की अंतिम कड़ी में भूगोल विभाग की सहायक प्रोफेसर डॉ. सुनीता सोनवानी ने सभी अतिथियों, विद्यार्थियों एवं आयोजकों का आभार व्यक्त किया। उन्होंने यह भी बताया कि डॉ. आंबेडकर का शैक्षिक सफर एक प्रेरणा है—कैसे सीमित संसाधनों के बावजूद उन्होंने विश्व स्तर की शिक्षा प्राप्त की और भारत के भविष्य को आकार देने वाले विचारक बने। इस महत्वपूर्ण आयोजन में विश्वविद्यालय के कला संकाय के अलावा अन्य विभागों, विषयों के छात्र एवं शिक्षक बड़ी संख्या में शामिल थे।

By जन स्वराज न्यूज़ 24

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